Sunday, July 10, 2011

फिर भी लिख रहा हूँ

सड़क किनारे बैठा देख रहा हूँ,
देख रहा हूँ भागती दौड़ती जिन्दगी,
आँखों मैं अरमान सजाये जिन्दगी,
मुझे पता है यह मेरे हाथ नहीं आयेगी,
चारो और अंधकार है, कुछ दिख नहीं रहा,
कुछ सूझ नहीं रहा, फिर भी लिख रहा हूँ.

दूर फटे चीथड़ों मैं, मिटटी से सना ,
भूख से बिलबिलाता ,इस सभ्य समाज की पोल खोलता ,
बचपन देख रहा हूँ,और सोच रहा हूँ,
क्या यही देश का भविष्य है,
पर मुझे उत्तर नहीं मिलता,
चारो और अंधकार है, कुछ दिख नहीं रहा,
कुछ सूझ नहीं रहा, फिर भी लिख रहा हूँ.

सुन रहा हूँ वाहनों की गडगडाहट,
लोगों का शोर,
देख रहा हूँ धुंए के उठते गुब्बार,
महसूस कर रहा हूँ लोगों का समय से लड़ना,
और सोच रहा हूँ की क्या यही तरक्की है?
यह सोच मैं फिर से निरुत्तर हो जाता हूँ,
चारो और अंधकार है, कुछ दिख नहीं रहा,
कुछ सूझ नहीं रहा, फिर भी लिख रहा हूँ.

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